परमहंस योगानंद जी की आत्मकथा (सारांश)
परमहंस योगानंद का जन्म 5 जनवरी 1893को गोरखपुर में हुआ। ये आठ बहन भाई थे। चार बहने और चार भाई। मुकुंद लाल (योगानंद 1915) घोष चौथे नंबर पर थे। बचपन में माता जी इनको महाभारत और रामायण की कहानियां सुनाया करती थी। मुकुंद लाल के पिता भगवती बाबू रेलवे में नौकरी करते थे।
लाहिड़ी महाशय इनके पारिवारिक गुरु थे जिनके पास चमत्कारिक शक्तियां थी। वह अचानक प्रकट होते और अपनी बात कह कर अदृश्य हो सकते थे। इसी तरह कई बार वे अपनी फोटो से भी बाहर आकर परिवार के सामने आकर बैठ जाया करते थे। जैसे ही उनको कोई छूने की कोशिश करता वापस फोटो बन जाया करते थे।
एक बार जब योगानंद बीमार हो गए को एशियाटिक कोलेरा हो गया था। इनका शरीर अत्यंत जीर्ण हो गया था। तब इनकी माताजी ने कहा कि गुरु जी की तस्वीर की तरफ ध्यान से देखो वह अवश्य कृपा करेंगे जब मुकुंद लाल ने देखा तो उनकी तस्वीर में सूर्य जैसी तेज चमक दिखाई दी और उनकी बीमारी ठीक होना शुरू हो गई कुछ ही समय बाद वह उठ कर बैठ गए।
इसी प्रकार एक दिन लाहिड़ी महाशय के शिष्य गंगाधर बाबू उनका फोटो लेना चाहते थे जब लाहिड़ी महाशय सुबह लकड़ी के तख्त पर ध्यान में बैठे। एक के बाद एक बारह फोटोग्राफ उन्होंने लिए लेकिन एक भी फोटोग्राफ में उनकी तस्वीर नहीं आई। केवल मेज की तस्वीर थी। लाहिड़ी महाशय कहने लगे "क्या तुम सर्व व्याप्त की तस्वीर ले सकते हो?" गंगाधर बाबू के अनुरोध पर अगले दिन उन्होंने स्वेच्छा से अपनी फोटो खिंचवाई। यही एकमात्र फोटो उनकी उपलब्ध है जीवन में उन्होंने कभी फोटो नहीं खिंचवाई।
लाहिड़ी महाशय ने एक बार कहा था कि उनकी मृत्यु के 50 साल बाद उनके जीवन के बारे में लिखा जाएगा। उनकी मृत्यु 1895 में हुई और उसके ठीक 50 साल बाद 1945 में ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी पूरी हुई।
योगानंद कहते हैं कि विचार की शक्ति इतनी तीव्र है यदि हम एकाग्र होकर कोई विचार करें तो वह मूर्त रूप में हमारे सामने प्रकट हो सकता है एक दिन उनकी छोटी बहन उमा ने छत पर उड़ते हुए दो पतंगों की मांग की जिसे योगानंद जी ने मात्र विचार की शक्ति से अपने पास बुला लिया।
एक दिन ध्यान की अवस्था में योगानंद जी ने हिमालय की गुफाओं में बैठे अनेक संतों के दर्शन किए। इतना ही नहीं इन्हें माता जी की मृत्यु से पहले की रात्रि इसका स्पष्ट आभास हो गया था।
एक साधु ने लगभग इसके 1 वर्ष पहले ही माता जी की मृत्यु की भविष्यवाणी कर दी थी पिताजी जब लाहौर में पोस्टेड थे तो एक दिन एक साधु आए जिन्होंने माताजी के दर्शन करने चाहे। माताजी के सामने प्रकट होकर उन्हें कहा कि "माता! आपकी बहुत कम आयु शेष है, आपकी अगली बीमारी आपकी अंतिम बीमारी साबित होगी। मैं एक विशेष उद्देश्य से यहां आया हूं। मेरे पास एक ताबीज है जो मैं बेटे मुकुंद के लिए है यह आज आपको नहीं दे रहा हूं लेकिन कल यह आपके हाथ में प्रगट हो जाएगा।" अगले दिन पूजा के समय माता जी के हाथ में चांदी का ताबीज प्रकट हो गया।
लेकिन महात्मा जी ने माता जी से वचन लिया था कि एक वर्ष तक वह इसे अपने पास रखेंगी और मृत्यु से पहले अपने बड़े बेटे अनंत को सौंप देंगी जो आगे मुकुंद को दे देगा। जब इस ताबीज का उद्देश्य पूरा हो जाएगा तो यह स्वत: ही अप्रकट हो जाएगा और अपने मूल स्थान पर लौट जाएगा।
मुकुंद के मन में हिमालय जाने की बार बार तलब होती थी जहां वे महान संतों से मिलना चाहते थे। इसके लिए एक बार वह अपने दो मित्रों के साथ रेल से भागने में कामयाब हो गए परंतु जल्दी ही पकड़ लिए गए। क्योंकि उनके बड़े भाई अनंत ने आसपास के रेलवे स्टेशनों पर तार भेजकर सूचित कर दिया था।
मुकुंद अभी अपने गुरु से मिलने में सफल नहीं हुए थे। तलाश करते करते उनकी मुलाकात गंध बाबा से हुई जो किसी भी चीज में किसी भी फूल की सुगंध तत्काल पैदा कर देते थे। युवक योगानंद इस चमत्कार से प्रभावित नहीं हुए क्योंकि ऐसे चमत्कार मनोरंजन कर सकते हैं उनका कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता।
आध्यात्मिक गुरु की खोज करते करते मुकुंद कई असाधारण साधुओं से मिले। उनमें से एक साधु ऐसे भी थे जिनके आसपास शेर विचरण करते लेकिन वह बिल्ली की तरह निरापद होते। अपनी युवावस्था में ये शेरों से निहत्थे लड़ दिया करते थे। एक बार कूचबिहार रियासत के राजा ने एक शेरनी से सार्वजनिक और निर्णायक युद्ध कराया जिसमें शेरनी की पराजय हुई। लेकिन घायल और विजय युवक एक साधु से दीक्षा लेकर सन्यासी हो गया। अब वह अपने अंदर के जंगली जानवर का स्वामी था।
एक अन्य संत थे भादुड़ी महाशय जो प्राणायाम के अभ्यास के कारण गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध हवा में उठ सकते थे।
मुकुंद ने बनारस यात्रा के दौरान नए केवल विस्मयकारी संतो के दर्शन किए बल्कि उनके चिर प्रतीक्षित गुरु युक्तेश्वर गिरी से भी साक्षात्कार हो गया। गुरु ने उन्हें आरंभिक दीक्षा दी और सबसे पहले कॉलेज की शिक्षा पूरी करने का आदेश दिया जिसमें बालक मुकुंद के बिल्कुल रुचि नहीं थी। लेकिन गुरु के आदेश के पीछे यह कारण था कि भविष्य में उन्हें पश्चिम में जाना है और वहां एक शिक्षित आध्यात्मिक संत की स्वीकृति अपेक्षाकृत आसान होगी। श्री युक्तेश्वर जी चमत्कारों को प्रकट नहीं करते थे। उनके अनुसार छिछले व्यक्ति की बुद्धि में विचारों की छोटी-छोटी मछलियां भी हलचल पैदा कर देती हैं जबकि विस्तृत दिमाग में बड़ी व्हेल मछली भी आंदोलन नहीं करती।
श्री युक्तेश्वर जी इंग्लिश, फ्रेंच, बंगाली और हिंदी में धाराप्रवाह बोलते थे। कभी-कभी वह संस्कृत भी बोलते थे। उनके शिष्यों को भी अनुशासन के डंडे से बचा कर नहीं रखा जाता था। युक्तेश्वर जी बहुत पढ़ते नहीं थे लेकिन उन्हें नवीनतम वैज्ञानिक खोजों के बारे में पूरी जानकारी रहती थी। अनेक शास्त्रों को कंठस्थ कर दलेने वाले विद्वानों से वह प्रभावित नहीं होते थे। उनका कहना था कि दूसरों की लिखी हुई चीजें दोहराते रहने से परमात्मा नजदीक नहीं आ जाता। उल्टे इससे अहंकार को पोषण मिलता है। वह नियमों के बारे में बहुत कठोर भी नहीं थे।
जब उनकी माता जी का देहांत हुआ तो उन्होंने स्वयं उनका संस्कार किया यद्यपि दीक्षा लेने के उपरांत सन्यासियों से घरेलू जिम्मेदारियां पूरी करने की अपेक्षा नहीं की जाती। युक्तेश्वर जी मानते हैं कि यह नियम सांकेतिक है। इसके अलावा एक पहुंचे हुए संत होने के बावजूद भी वह गंभीर चेहरा बनाकर नहीं रखते थे उनका कहना था कि भगवान ने हमें चेहरा इसलिए नहीं दिया कि हम उसे बदसूरत बनाएं।
बालक मुकुंद लाल परमात्मा का साक्षात्कार करने की जल्दबाजी में थे इसलिए वह हिमालय जाना चाहते थे। गुरु ने उन्हें रोका नहीं। उन्होंने किसी से सुना था कि वहां पर एक न सोने वाले वाले बाबा रहते हैं। मुकुंद वहां पहुंचे लेकिन रास्ता भटक गए परेशान होने के बाद वह संत से मिले जिन्होंने उन्हें बताया कि उनके गुरु श्री युक्तेश्वर वह सब कुछ देने में सक्षम हैं जिसकी मुकुंद को तलाश है लेकिन वह मानसिक स्तर पर अभी तैयार नहीं है कि इतनी ऊर्जा को सहन कर सके। जिस प्रकार यदि एक बल्ब में बहुत अधिक वोल्टेज प्रवाहित कर दी जाए तो वह उड़ जाता है। इसी प्रकार शरीर आध्यात्मिक चेतना के त्वरित प्रवाह को सहन नहीं करता है। इसीलिए गुरु पहले शिष्य को इसके लिए तैयार करते हैं।
आश्रम लौटने पर मुकुंद को लग रहा था कि गुरु नाराज होंगे लेकिन यह उनका वहम था उन्होंने क्षमा याचना की लेकिन गुरु ने कहा कि क्योंकि वह अपने शिष्यों से कोई अपेक्षा नहीं करते इसलिए उन्हें कभी कोई तकलीफ नहीं हो सकती। इसके बाद मुकुंद ने ध्यान लगाने की कोशिश की लेकिन उसके विचार इस प्रकार बिखर जाते थे जैसे शिकारी के आने पर पक्षी उड़ जाते हैं।
गुरु ने उन्हें पास बुलाया और छाती के ऊपरी भाग में स्पर्श किया। क्षणभर में मुकुंद ने देखा कि उसका शरीर प्रकाश से भर रहा था। आसपास के प्रत्येक चीज कोई अपने अंदर अनुभव कर रहे थे। उस अनंत विस्तार में उन्होंने असीम अंतरिक्ष को अपने अंदर महसूस किया। उन्हें पहली बार दिव्य अनुभव हुआ था। कुछ देर बाद मुकुंद शारीरिक चेतना में लौट आए।
एक बार युक्तेश्वर जी ने शहर के बीचों-बीच धार्मिक यात्रा निकालने का निश्चय किया। लेकिन उनके शिष्य मुकुंद ने कहा कि इतनी तेज तपती धूप में आपके अनुयाई नंगे पांव कैसे चल सकेंगे? तब गुरुदेव ने कहा कि भगवान इन पर कृपा करेंगे और बादलों की छाया कर देंगे। ठीक ऐसा ही हुआ जैसे ही जुलूस आरंभ हुआ आसमान में बादल छा गए और हल्की-फुल्की बारिश भी हुई। गुरु ने इसे चमत्कार न मानते हुए यह कहा कि भगवान केवल सिद्ध पुरुषों की ही नहीं सभी मनुष्यों की मन से की हुई प्रार्थना को सुनते हैं और पूरा भी करते हैं।
इसी प्रकार बालक मुकुंद ज्योतिष में विश्वास नहीं करते थे लेकिन श्री युक्तेश्वर जी ने बताया कि मनुष्य का वर्तमान जीवन उसके पूर्व कर्मों के प्रभाव में बीता है जिस पर ब्रह्मांड की सभी वस्तुएं अपना प्रभाव डालती हैं क्योंकि ब्रह्मांडीय पिंड पदार्थ हैं और मनुष्य आत्मा है इसलिए परमात्मा के स्मरण से मनुष्य इनका प्रभाव कम कर सकता है।
मुकुंद अब श्रीरामपुर कॉलेज में BA कर रहे थे तथा वहीं किराए का कमरा लेकर रहते थे। शाम को वह अपने गुरु के पास चले जाया करते इस दौरान श्री युक्तेश्वर जी ने कई असंसारिक अनुभव करवाए। उन्होंने एक फकीर का किस्सा भी सुनाया जिसे एक संत की कृपा से पर आलौकिक शक्तियां प्राप्त हुई थी पर उनका वह दुरुपयोग करने लगा था। इसलिए एक समय के बाद वे समाप्त हो गई। मुकुंद पढ़ने में बहुत अच्छे नहीं थे बस पास हो जाया करते थे। परंतु जिस प्रकार की उच्च स्तर की सटीक इंग्लिश वह इस पुस्तक में प्रयुक्त करते हैं वह प्रतिभाशाली साहित्यकारों के लिए भी संभव नहीं है। क्या यह भी उनके गुरु के आशीर्वाद से संभव हुआ था?
उच्च आध्यात्मिक स्तर पर होने के बावजूद संत प्रकृति के नियमों का अतिक्रमण नहीं करते। एक बार जब वह मुकुंद के साथ कश्मीर यात्रा पर गए तब वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए यद्यपि किसका पूर्वानुमान उन्होंने पहले ही मुकुंद को बता दिया था। योगानंद जी कहते हैं कि परमात्मा को प्राप्त योगी भी स्वेच्छा से शारीरिक कष्ट सहते हैं। ईसा मसीह ने अपनी मर्जी से ही मृत्यु का वरण किया था वरना उनको सूली पर लटकाना किसी के लिए संभव ही नहीं था। अपने शिष्यों के कर्मफल अपने ऊपर ले कर उन्होंने शिष्यों का स्तर ऊंचा उठा दिया था। इसी प्रकार सेंट फ्रांसिस खुद बीमार रहते थे लेकिन अपने शिष्यों को ठीक कर दिया करते थे।
मुकुंद लाल की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं थी वह क्लास में भी अक्सर अनुपस्थित रहते थे फिर भी अपने गुरु की कृपा से बीए की परीक्षा पास कर ली।
जुलाई 1915 में मुकुंद लाल घोष को श्री युक्तेश्वर जी ने दीक्षा दी और अब वह योगानंद हो गए थे। योगानंद जी ने क्रिया योग का विशेष प्रचार प्रसार किया जिसके माध्यम से अपेक्षाकृत बहुत ही कम समय में परमात्मा में ध्यान लगाया जा सकता है। इसका जिक्र सबसे पहले भगवान कृष्ण ने गीता में किया था। इसके बाद महावतार बाबाजी ने अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय को सिखाया उनसे श्री युक्तेश्वर जी ने और श्री युक्तेश्वर गिरी से योगानंद जी ने सीखा।
1918 में योगानंद जी ने रांची में 20 एकड़ में एक स्कूल की स्थापना की जिसका उद्देश्य बच्चों को अन्य विषयों के साथ साथ अध्यात्म, कृषि, बागवानी, अर्थशास्त्र और विज्ञान की शिक्षा देना भी शामिल था। स्कूल में एक डिस्पेंसरी भी थी जिसमें आसपास के लोगों का मुफ्त इलाज किया जाता था।
स्कूल में उन्होंने एक हिरण का बच्चा भी पाल रखा था। एक दिन एक घटना हुई योगानंद जी को किसी काम के लिए शहर जाना पड़ा जाने से पहले उन्होंने हिरण को अच्छी तरह से खिला पिला दिया था लेकिन उनके पीछे से बच्चों ने उसे बहुत ज्यादा दूध पिला दिया जिससे वह लगभग मरने की स्थिति में पहुंच गया। योगानंद वापस आए तो बहुत दुखी हुए। उन्होंने पशु को गोद में ले लिया और आंख बंद करके भगवान से उसका जीवन बचाने की प्रार्थना की। थोड़ी देर के बाद हिरण ने आंखें खोली। योगानंद उसके साथ काफी देर खेलते रहे और देर रात सो गए। सपने में उन्होंने देखा कि वही हिरण उनके पास आया है और कह रहा है" आप मुझे रोक रहे हैं। कृपया ऐसा मत कीजिए। मुझे जाने दीजिए"।
योगानंद जी ने स्वप्न में ही कहा कि ठीक है। इसके बाद उनकी आंख खुल गई और वह वहां गए जहां बच्चे को बांध रखा था। थोड़ी देर में वह लड़खड़ा कर जमीन पर गिर गया और उसकी मृत्यु हो गई। योगानंद कहते हैं कि उस दिन मैंने यह सबक सिखा कि हमें अपने स्वार्थ के लिए परमात्मा के कार्य में बाधा नहीं डालनी चाहिए। वह पशु के रूप में कोई अच्छी आत्मा होगी जो अब मुक्त होना चाहती थी लेकिन मेरी प्रार्थना ही उसमें रुकावट बन गई थी।
यह स्कूल बाद में काफी प्रसिद्ध हो गया और इसकी अन्य दो शाखाएं भी मिदनापुर और लखनपुर में खोली गई। एक दिन प्रणवानंदजी रांची आए। यह बनारस में रहते थे और वही संत थे जो एक ही समय में दो जगह उपस्थित हो सकते थे। उन्होंने बताया कि अब वह बनारस को छोड़ने वाले हैं। साथ में वह एक थैली लिए हुए थे जिसमें बीज से थे। योगानंद जी ने उनका प्रयोजन पूछा तो प्रणवानंद कहने लगे "अब मैं बनारस हमेशा के लिए छोड़ने वाला हूं और हिमालय में एक आश्रम की स्थापना करूंगा। वहां पर इन बीजों को बो दूंगा।"
इसके बाद ऋषिकेश में उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की और बहुत सारे शिष्यों को दीक्षा दी। एक दिन वह कहने लगे की अब मैं इस शरीर को ज्यादा दिन नहीं रखूंगा। एक दिन उन्होंने शिष्यों से कहा कि मुझे काफी लोगों को भोजन कराना है। आसपास से लोगों को आमंत्रित कर लो। लगभग 2000 लोग इकट्ठा हुए। उन्हें स्वादिष्ट लंगर खिलाया गया। इसके बाद स्वामी जी ने एक भक्तिमय प्रवचन किया। प्रवचन के बाद वह अपने आसन पर वैसे ही बैठे रहे। कुछ देर बाद शिष्यों को पता चला कि उन्होंने शरीर छोड़ दिया था। मृत्यु से पहले उन्होंने यह भी बता दिया था कि वह जल्दी ही अगला जन्म लेंगे इसका स्थान भी उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को बता दिया था।
एक बार वह अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे बच्चे उनसे पूछ रहे थे बच्चे उनसे बातें कर रहे थे कि बड़े होकर क्या बनेंगे? एक बच्चे का नाम काशी था। उसने कहा और मैं क्या बनूंगा तो योगानंद जी के मुंह से निकल गया "तुम्हारी शीघ्र ही मृत्यु हो जाएगी" यह बात उन्होंने कह तो दी लेकिन उन्हें बड़ा अफसोस हुआ। बच्चे को बात ज्यादा समझ में नहीं आई इसलिए उसने योगानंद जी से वचन लिया कि वह नए जन्म में भी उससे मिलेंगे। इसके बाद वह काशी का विशेष ध्यान रखते थे एक बार बाहर जाने लगे तो उन्होंने कहा कि तुम स्कूल का वातावरण छोड़कर बाहर मत जाना बच्चे ने स्वीकार कर लिया पीछे से उसके पिता आए और जबरन उसे कोलकाता ले गए जहां पर सचमुच उसकी मृत्यु हो गई। अब उनके सामने दिक्कत यह जी कि वह अपना वचन कैसे पूरा करें?
लगभग 6 महीने तक उन्होंने ध्यान में यह जानने की कोशिश की कि काशी की आत्मा अब कहां होगी? आखिर उन्होंने अपनी अनुभूति से उस घर का पता लगा लिया और जाकर गृह स्वामी से पूछा कि क्या आपके घर में कोई बच्चा होने वाला है? साधु का वेश देखकर वह आदमी उनको अंदर ले गया और विस्तार से सारी बात पता की। जब उस बच्चे का जन्म हुआ तब उसका नया नाम भी काशी ही रखा गया और हुलिया बिल्कुल वैसा था जैसा योगानंद जी ने बताया था। बाद में इस बच्चे ने हिमालय में रहने वाले एक संत से दीक्षा ली।
लाहिड़ी महाशय महावतार बाबाजी के शिष्य थे जिनके बारे में कहा जाता है कि वह आज भी हिमालय में घूमते रहते हैं वह सदियों से वहीं रहते आए हैं और स्वेच्छा से अपने शिष्यों को दर्शन देते हैं। उनके माता-पिता या जन्म स्थान के बारे में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। इनका जो चित्र इस पुस्तक में उपलब्ध है वह श्री योगानंद जी से उनकी मुलाकात के आधार पर बनाया गया है। सदैव युवा दिखने वाले महावतार बाबाजी ने आदि शंकराचार्य और कबीर को भी दीक्षा दी थी।
यह पढ़ने में आश्चर्यजनक लगता है की महावतार बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय खुद दीक्षा देने के लिए अपनी इच्छा से एक स्वर्ण महल की रचना कर दी थी जो दीक्षा के बाद मेंअप्रकट हो गया। इस उदाहरण से उन्होंने यह भी बताया कि यह संसार भी इसी तरह परमात्मा की इच्छा से प्रकट है। इसीलिए इसे माया कहा गया है। जिस दिन वह नहीं चाहेंगे यह पृथ्वी वापस ऊर्जा में बदल जाएगी। बाबा जी ने बताया कि प्रत्येक जीव का शरीर परमात्मा का मंदिर है। इसलिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए। यहां पर योगानंद जी ने उन्हीं चमत्कारों का उल्लेख किया है जिनके लिए उनके गुरु ने अनुमति दी थी। बहुत सारे रहस्य उन्होंने अपने तक ही सीमित रखे।
उनके सभी वरिष्ठ गुरुओं की यह इच्छा थी कि भारत का अध्यात्मिक ज्ञान पश्चिमी देशों में भी फैले। कई बार उन्होंने ध्यान में अमेरिका में स्थापित होने वाली भावी केंद्रों को पहले ही साकार देख लिया था लेकिन तब वे कुछ समझ नहीं पाए। जल्दी ही होने अमेरिका में होने वाली इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ रिलिजियस लिबरल्स के लिए निमंत्रण मिला। लेकिन तो अंग्रेजी बोलने का उन्हें कोई अनुभव था और ने अमेरिका के बारे में भौगोलिक जानकारी।
योगानंद जी के पिताजी ने पहले उन्हें भेजने से इनकार किया लेकिन बाद में अपने गुरु की प्रेरणा हुई तो खुद ही भारी रकम का चेक पुत्र को सौंप दिया। अगस्त 1920 में वह अमेरिका के लिए रवाना हो गए और अपने गुरु के आशीर्वाद से न केवल वह धाराप्रवाह अंग्रेजी में भाषण दे पाए बल्कि उनके व्याख्यानों में इतने लोग आने लगे कि बैठने के लिए स्थान ही नहीं मिलता था।
15 वर्ष वहां रहने के बाद एक दिन ध्यान में उनके गुरु ने संदेश दिया कि योगानंद वापस आ जायें क्योंकि वह अब अधिक दिन तक इस शरीर में नहीं रहेंगे। तब तक कैलिफोर्निया में उनका केंद्र भली भांति स्थापित हो चुका था। 9 जून 1935 को यूरोपा नामक जहाज से उन्होंने भारत की यात्रा शुरू की। उनके साथ उनके सचिव सी रिचर्ड राइट (Wright) और सिन्सिनेटी से एक महिला मिस एटी ब्लेस्च Bletsch) साथ रवाना हुई।
वापसी में उनका जहाज कई देशों से होता हुआ बवेरिया पहुंचा। रास्ते में उनकी इच्छा एक प्रसिद्ध कैथोलिक ईसाई संत थेरेस न्यूमैन से मिलने की हुई। जिस प्रकार करिश्माई संतो की बात हमने पहले की है ऐसे संत दुनिया भर में अलग-अलग समय पर होते रहे हैं।
थेरस का जन्म 1898 में गुड फ्राइडे के दिन हुआ था 20 साल की उम्र में एक दुर्घटना में उनकी आंखें चली गई और शरीर को लकवा मार गया 1923 में उनकी दृष्टि लौट आई और सेंट थेरेस ऑफ ली सियू की प्रार्थना के कारण उनका शरीर भी ठीक हो गया। लेकिन उन्होंने लगभग खाना पीना छोड़ दिया । आश्चर्य यह था कि उनके शरीर पर उन्हीं स्थानों पर घाव उभर आए जहां पर ईसा मसीह के शरीर में कीलें ठोंकी गई थी। हर फ्राइडे को इन घावों से खून बहता था जिसे देखने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ती थी। बाद में इसे नियंत्रित करने के लिए पादरी ने इसके लिए परमिट जारी करना शुरू कर दिए। योगानंद जी ने वह दृश्य देखने के लिए अनुमति ली और शुक्रवार तक इंतजार किया। उन्होंने देखा कि वास्तव में भयावह रूप से उनके शरीर से जगह जगह से खून बहता रहता था जो एक निश्चित समय के बाद रुक जाता था। संत से आशीर्वाद लेकर उन्होंने यात्रा जारी रखी।
22 अगस्त 1935 गोवा है मुंबई पहुंच गए। उनके स्वागत के लिए जगह-जगह भारी भीड़ इकट्ठा हो गई थी। से सेरमपुर आश्रम पहुंचकर उन्होंने जी भर कर अपने गुरु को देखा और उनके साथ कुछ दिन बिताए। गुरु ने उनकी योग्यता पहचान कर परमहंस की पदवी दी। श्री युक्तेश्वर जी ने उनसे कहा कि वे पूरी के आश्रम को संभालने के लिए एक शिष्य को जिम्मेवारी दे दें क्योंकि पृथ्वी पर उनका कार्य अब समाप्त हो गया है। योगानंद जी नेम से आग्रह किया कि वे ऐसी बातें मुंह से ना निकालें। एक बार उन्होंने कहा था कि संतों को भी देह से प्रेम हो जाता है जिस प्रकार बहुत दिनों तक पिंजरे में रहने वाला पक्षी उसे छोड़कर नहीं जाना चाहता। बाद में योगानंद अपना स्कूल देखने रांची चले गए। कुछ दिन वे मैसूर के महाराजा मेहमान रहे।
1936 का कुंभ मेला नजदीक आ रहा था। योगानंद जी की इलाहाबाद जाने की इच्छा थी। वह अपनी फोर्ड कार लेकर जिसे वह अमेरिका से अपने साथ लाए थे कुंभ मेले के लिए रवाना हुए और वहां अनेक संतों से मिले। कहां जाता है कि जो संत हिमालय की गुफाओं में ही रहते हैं वह भी कुंभ मेले में जरूर आते हैं सातवीं शताब्दी में जब चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया था तो उसने भी अपने किताबों में कुंभ मेले का जिक्र किया है। 14 वी शताब्दी के संत रैदास कबीर के गुरु भाई और मीरा के गुरु थे एक बार गुरु के आगमन पर मीरा ने सार्वजनिक भोज का आयोजन किया। ब्राह्मणों ने रैदास के साथ बैठने से इंकार कर दिया क्योंकि वह नीची जाति के थे। इसलिए सभी ब्राह्मण अलग पंक्ति में बैठे। लेकिन कहा जाता है कि जब भी भोजन करने लगे तो प्रत्येक ब्राह्मण ने अपने साथ रैदास को बैठा पाया। इसके बाद उनका अहंकार दूर हो गया। वापसी में योगानंद कृष्ण की भूमि वृंदावन होते हुए कोलकाता लौट आए। 8 मार्च को उन्हें टेलीग्राम मिला कि शीघ्र ही पुरी आश्रम पहुंचें। लेकिन उन्हें अनुभूति हुई की पुरी जाने का कोई फायदा नहीं है। जब वह पूरी आश्रम पहुंचे तो उनके गुरु देह छोड़ चुके थे। उचित रीति रिवाज से उनका संस्कार किया गया। इसके बाद वह अपने सहयोगियों के साथ अमेरिका लौटना चाहते थे जहाज पकड़ने के लिए वह मुंबई के लिए अपनी फोर्ड कार से रवाना हुए। मुंबई पहुंच कर उन्हें पता चला कि उन्हें दूसरा जहाज पकड़ना पड़ेगा क्योंकि वर्तमान जहाज में कार के लिए जगह नहीं थी। वे होटल में रुक गए उसी रात को श्री योगानंद जी ने रीजेंट होटल के अपने कमरे में श्रीकृष्ण को साक्षात देखा जिनका हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में था।
इसके एक सप्ताह बाद उन्होंने होटल के अपने कमरे में श्री युक्तेश्वर जी को अपने सामने पाया। यह दृश्य देखकर शिष्य योगानंद चरण स्पर्श करने की बजाय उनसे लिपट गए। उन्होंने कहा कि आपने मुझे कुंभ मेले में क्यों जाने दिया? इसके बाद शायद उन्हें कुछ याद आया तो उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि क्या आप मेरे गुरु युक्तेश्वर जी ही है जिनको मैंने पूरी में दफनाया है? गुरु कहने लगे हां! मैं युक्तेश्वर ही हूं। यह शरीर असली है और मैंने स्वेच्छा से धारण किया है। मुझे नया जीवन मिला है लेकिन अब मैं पृथ्वी पर नहीं हूं।
मृत्युंजय गुरु ! मुझे कुछ अधिक जानने की उत्सुकता हो रही है। "पहले मुझे ढीला तो छोड़ो।" जिस प्रकार मनुष्यों की सहायता के लिए पृथ्वी पर भगवान् महापुरुषों को भेजते हैं इसी प्रकार मुझे इस उच्च ग्रह पर आत्माओं के उद्धार के लिए भेजा गया है जिसे हिरण्यलोक कहा जाता है। यहां के निवासी आध्यात्मिक रूप से अत्यंत विकसित हैं जो अपने पिछले जन्मों में ध्यान समाधि जैसी क्रियाओं के सहायता से यहां तक पहुंचे हैं। यहां पर वह बचे कुचे कर्म बंधनों से भी मुक्त होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर आ जाते हैं। पृथ्वी के लोग जो काम अपने इंद्रियों से लेते हैं इस ग्रह के निवासी वह कार्य अपनी चेतना से ही कर लेते हैं। इस प्रकार के कई ग्रह हैं और इन ग्रहों के निवासी एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रकाश से भी तेज गति से जा सकते हैं। यह स्थान अत्यंत सुंदर, स्वच्छ, शुद्ध अंतहीन और व्यवस्थित है। यहां पर कीड़े मकोड़े सांप वह खरपतवार जैसी चीजें नहीं पाई जाती। यह मौसम सदैव सुहाना और एक जैसा रहता है तथा कभी-कभी चमकीली सफेद बर्फ गिरती है।
हिरण्यलोक में गतिशील परियां, अप्सराएं और सुंदर जीव अलग-अलग स्तरों पर रहते हैं ठीक वैसे ही जिस प्रकार पृथ्वी के जीव जमीन पर जल में और आकाश में पाए जाते हैं। यहां पर विभिन्न जीवो के बीच संघर्ष भी होते हैं लेकिन उनमें खून खराबा ने होकर केवल ऊर्जा शक्ति का आदान-प्रदान होता है। इस लोक के निवासी स्वेच्छा से परमात्मा द्वारा निर्धारित स्वरूपों में से कोई भी रूप धारण कर सकते हैं । पृथ्वी की तरह यहां पर ठोस द्रव और गैस के रूप में चीजें पाई जाती हैं लेकिन वह इच्छा शक्ति से एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदली जा सकती हैं। यहां के पेड़ इच्छा मात्र से कोई भी फल या फूल उत्पन्न कर सकते हैं।
ओंकार सिंह शेखावत