अनीता मूरजानी की दिलचस्प कहानी

अनीता मूरजानी की दिलचस्प कहानी 

 

By Anita Moorjani

 

किताब की शुरुआत कुछ इस तरह होती है।

 

2 फरवरी 2006 का दिन।

मुझे तेजी से अस्पताल पहुंचाया गया था डॉक्टरों ने बताया कि बहुत देर हो चुकी है पहले आते तो कुछ हो सकता था मेरे पति और मेरी मां लाचार गिड़गिड़ा कर डॉक्टरों से मुझे बचाने की गुहार लगा रहे थे लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था क्योंकि मेरे अधिकतर अंग काम करना बंद कर चुके थे और मैं कोमा में पहुंच गई थी।

 

लेकिन मैं यह सब वार्तालाप सुन सकती थी। मैं मर रही थी। क्या इसी को मरना कहते हैं? मेरे परिवार के लोग बेकार में क्यों परेशान हो रहे हैं? मैं उन्हें कहना चाहती थी कि आप लोग दुखी ना हों। लेकिन मेरी आवाज नहीं निकल पा रही थी। 

 

वे लोग मुझे बेतहाशा से आईसीयू की तरफ ले जा रहे थे। लेकिन वह मैं नहीं थी। मैं अपने शरीर को देख सकती थी मैं लोगों की बातें सुन रही थी लेकिन कुछ कह नहीं सकती थी वास्तव में दर्द का मेरे लिए कोई अस्तित्व नहीं था। मैं खुश थी और हल्का महसूस कर रही थी आनंदित और  सचेत।

 अनीता मूरजानी अपनी किताब की शुरुआत कुछ इसी तरह करती हैं।

 

अनिता मूरजानी गुजराती मूल की भारतीय महिला है जो हांगकांग में पाली और बढी। किताब के शीर्षक को देखकर ऐसा लगता है जैसे लेखिका अपनी पहचान की तलाश के लिए तड़फ रही है। किताब के आरंभ में अनीता कहती हैं कि मैं लोगों को यह नहीं बताना चाहती कि वे जिंदगी को कैसे जिएं। मेरा मकसद लोगों को यह बताना नहीं है कि वे जिंदगी को कैसे जीयें बल्कि जिंदगी के साथ और लगभग मृत्यु के साथ मेरा जो अनुभव रहा है उसे साझा करना है।

 

 एक खुशहाल पारिवारिक जीवन से मृत्यु की अंधेरी कोठरी के दरवाजे तक  की यात्रा उसे एक अलग स्तर पर पहुंचा देती है उसके विचार और मूल्य दोनों बदल जाते हैं। हम सभी की तरह वह भी एक सुकून की जिंदगी गुजारना चाहती थी। वह बीमारी और मौत से अक्सर डरती थी लेकिन एक समय ऐसा आया जब उसका यह डर हमेशा के लिए निकल गया। लेखिका ने अपना यही अनुभव इस किताब में संजोया है लेखन शैली में प्रवाह बना रहता है और जो कुछ वह कहती हैं उसमें एक ईमानदारी की झलक पढ़ने वाले को अवश्य मिलती है। अनीता दिखती हैं:-

 

मेरे माता पिता का विवाह पारंपरिक ढंग से हुआ था और वह मेरा विवाह भी इसी तरह  करना चाहते थे। अन्य भारतीयों की तरह,जहां लड़कियों का कार्य बच्चे पैदा करना और परिवार की सेवा करना होता है। एक बार तो एक आंटी को मैंने अपनी मां से कहते हुए सुना था "क्या लड़की पैदा होने पर तुम्हें दुख नहीं हुआ? वास्तव में लड़कियां एक समस्या हैं। खासतौर पर जब वे बड़ी होती हैं। हर गुजरते साल के साथ दहेज की रकम बढ़ती ही चली जाती है।"

 

हांगकांग के इस स्कूल में भारतीय बच्चे कम ही थे और इस प्रकार के मिश्रित स्कूलों की तरह ही उसे भी उसके हिंदू धर्म, चेहरे की बनावट, रंग और बालों के कारण दूसरे बच्चों के द्वारा भेदभाव का शिकार होना पड़ा। अक्सर उसे ख्याल आता कि काश वह भारतीय नहीं होती। जब वह बड़ी हुई तो भेदभाव तो खत्म हो गया लेकिन उसकी सीमाएं बनी रही। वह आजाद होकर यूरोप घूमना चाहती थी। एफिल टावर को देखना चाहती थी। मिस्र के पिरामिड, स्पेन और मोरक्को की यात्राएं करना चाहती थी लेकिन उसे इसकी अनुमति नहीं मिली। 

 

उसके लिए सही आटा गूंथना और चपाती को गोल बनाना सीखना अधिक अनिवार्य था क्योंकि अब उसके लिए सही लड़के की तलाश शुरू हो गई थी। 

 

एक भारतीय लड़का मिल भी गया। सगाई भी हो गई। शादी की तारीख तय हुई लेकिन अनीता को लगता था कि वह अपने आप को कृत्रिम रूप से नहीं बदल पाएगी। खरीददारी कर ली गई थी। तारीख नजदीक आ गई थी और मेहमान भी आना शुरू हो गए थे। लेकिन तभी एक दिन उसने अपनी मां से कहा कि वह इस विवाह को स्वीकार नहीं कर पाएगी।

 

 आश्चर्य की बात यह थी की मां ने उसके निर्णय का स्वागत किया। यद्यपि समुदाय के अन्य लोगों ने इसे बहुत बड़ी गलती कहा। इसके बावजूद अनीता ने सगाई तोड़ दी और अपनी भारतीय मित्रों के यहां घूमने चली आई।

 

जब लौटकर वापस आएगी तो उसे  एक फ्रेंच कंपनी में मनपसंद जॉब ऑफर मिला यह फैशन कंपनी थी और घूमने फिरने का काम था नियुक्ति पत्र मिलने के बाद उसे बेहद खुशी हुई और उसने इसे अपने माता पिता के साथ साझा किया।

 

 अनीता के पिता को अपनी बेटी पर गर्व था लेकिन साथ ही उन्होंने कहा कि बेटी इतना भी आजाद मत हो जाना कि भविष्य में तुम्हारा विवाह करने में कठिनाई है इस समय तक हांगकांग का सिंधी समुदाय अनीता को विद्रोही, जिद्दी और जरूरत से आग्रही मानने लगा था और उसने इस परिवार से अपनी दूरी बना ली थी।

 

इस बीच अनीता को अपना मनपसंद जीवनसाथी भी मिल गया जो उसके स्वभाविक रूप में उसे स्वीकार करता था। उसके भूतकाल के बारे में जानने के बावजूद भी डैनी नूरजानी के विचार अनीता के बारे में नहीं बदले।इस बीच दोनों की शादी के ठीक पहले एक दिन अनीता के पिता चल बसे। अपनी बेटी का विवाह होते देखना उनका सबसे बड़ा सपना था जो अधूरा रह गया।

अनीता के लिए यह सदमे से कम नहीं था।

 

खैर, कुछ समय बाद विवाह संपन्न हो गया।

लड़के के विचार अनीता से मिलते थे और वह बहुत ही हंसमुख था। वास्तव में उसे एक आजाद ख्याल लड़की ही चाहिए थी। सामाजिक परंपराओं में उसे भी विश्वास नहीं था। यह व्यक्ति एक बेहतरीन जीवनसाथी साबित हुआ और अनीता के कठिनतम समय में उसके साथ बना रहा।  

 

कुछ समय बाद अनीता की अत्यंत प्रिय मित्र सोनी को कैंसर होने का पता चला। थोड़े ही समय बाद डैनी के जीजा को भी कैंसर का पता चला। इन्हीं खबरों के बीच अनीता ने अपने मित्र की सहायता के लिए इंटरनेट पर कैंसर से जुड़ी जानकारी पढ़ना शुरू की। उसे संदेह हुआ कि उसकी उम्र की अनेक महिलाओं की मृत्यु कैंसर से हो रही थी।

 

 वही हुआ जिसका डर था अनीता को भी कैंसर था। Stage 2A lymphoma.

 

इसके कुछ समय के बाद अनीता के प्रिय मित्र सोनी का निधन हो गया थोड़े ही दिनों के बाद उसके पति के जीजा भी चल बसे। अनीता को अब गुस्सा, निराशा, हताशा और डर का ही साथ रह गया था।

 

इस दौरान वह 6 महीने के लिए भारत भी आई ताकि आयुर्वेदिक उपचार करा सके। पुणे में रहते हुए उसने एक योग गुरु से मार्गदर्शन लिया जिनके अनुसार कैंसर बीमारी नहीं डर का प्रतीक है और इसे खुराक के संतुलन से दूर किया जा सकता है। वह 6 महीने तक भारत में रही और बिल्कुल ठीक महसूस करने लगी। 

 

इसके बाद अनिता मूरजानी हांगकांग लौट गई। पर वहां पर उसके दोस्तों ने बताया कि वह इन चक्करों में न पड़े क्योंकि कैंसर इतनी साधारण बीमारी नहीं है। इसके बाद उसने पश्चिमी प्राकृतिक चिकित्सा पर भी हाथ आजमाया। ध्यान, प्रार्थना, हिप्नोथेरेपी और परंपरागत चाइनीज औषधियों का भी सेवन किया लेकिन इन सब में एक विरोधाभास था।

 

 आयुर्वेद में जहां पूरी तरह शाकाहार पर जोर दिया जाता था वहीं चाइनीज उपचार पद्धति मांस खाने पर जोर देती थी। इसके अलावा पश्चिमी प्राकृतिक चिकित्सा में चीनी और डेयरी उत्पाद वर्जित थे जबकि आयुर्वेद इन की अनुमति देता था। कभी-कभी उसे यह भी लगता कि यह सब किमी पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है।

 

अमिता ने अनीता ने लोगों से मिलना बंद कर दिया था रात रात भर उसे नींद भी नहीं आती थी उसका वजन बहुत कम हो गया था। उसके पति डैनी ने नौकरी छोड़ दी और दिन रात उसकी सेवा करने लगा लेकिन ऐसा करते हुए उसने कभी यह नहीं जताया कि वह कोई एहसान कर रहा था। अनीता को अब निरंतर ऑक्सीजन की जरूरत रहने लगी थी। एक दिन डॉक्टर ने डैनी को अकेले में बुलाकर बताया कि रोगी की आयु अब तीन महीने से अधिक नहीं है। अनीता को शक हुआ तो उसने अपने पति से पूछा कि क्या मैं मरने वाली हूं तो डैनी ने कहा था "एक दिन हम सबको मरना है।"

 

एक दिन अनीता की हालत खराब हो गई उसे छोटे अस्पताल से बड़े अस्पताल में शिफ्ट किया गया। डॉक्टरों ने उस पर अनेक टेस्ट किए जिनके अनुसार मैं केवल एक रात की मेहमान थी क्योंकि मैं कोमा में चली गई थी।

 

 दूसरी तरफ मैंने पाया कि मैं  बाहर से अपने ही शरीर को साफ देख पा रही थी। अपने पति और मां के चेहरे पर भय और हताशा को देख पा रही थी। मैं अपनी सीमाओं से बाहर आ रही थी अब न दर्द था न पीड़ा। एक सुख की अनुभूति।

 

 मैं अस्पताल के डॉक्टरों के बीच आपस में तथा मेरे पति के साथ होने वाली बातचीत को सुन पा रही थी। मैं उन्हें कुछ कहना चाहती थी कि मुझे कोई तकलीफ नहीं है लेकिन मेरे पास आवाज नहीं थी। मैं देख पा रही थी कि मेरा भाई अनूप हवाई जहाज पकड़कर आ रहा था और मेरे मरने से पहले मुझसे मिल लेना चाहता था।

 

मैंने अपने पिता को, जिनकी मृत्यु 10 वर्ष पहले हो चुकी थी अपने पास अनुभव किया। मैंने कहा "पिताजी आप! तो जैसे वह कह रहे थे "बेटी मैं तो हमेशा ही तुम्हारे पास था।" 

 

मैंने अपनी मित्र सोनी को भी अपने ही अस्तित्व के विस्तार में पाया। मुझे लगा कि मेरा अस्तित्व समय और स्थान के बाहर जा रहा था। मैं महसूस कर रही थी कि भूतकाल, वर्तमान और भविष्य जैसी कोई चीज नहीं होती। यह तीनों समय एक ही साथ घटित होते हैं। 

अब मेरे अलग शरीर, जाति, धर्म, आस्था आदि का कोई अस्तित्व नहीं था। हम सब एक धागे से बंधे हुए थे। मेरे मित्र और मेरे परिवार के लोग ही नहीं यहां तक कि वे बच्चे भी जिन्होंने मुझे स्कूल में परेशान किया था, उसी डोर से बंधे थे। 

 

मुझे लग रहा था कि मैंने दूसरों को प्रसन्न करने के लिए जीने की कोशिश क्यों की थी? अपनी चेतना के प्रकाश में मैं अपने अस्तित्व को स्पष्टता से देख पा रही थी। मैं अनुभव कर रही थी कि संसार की सभी अलग-अलग चीजें एक अनंत संपूर्ण के भाग हैं।

 

अचानक मेरी हालत बिगड़ने लगी थी मेरी सांस बंद हो रही थी। आनन-फानन में डॉक्टरों की एक टीम को बुलाया गया उन्होंने देखा कि मेरे फेफड़े में कोई तरल पदार्थ भर गया है जिसे एक लंबी सुई के द्वारा खींच कर निकाला गया और एक खाली बैग में भर दिया गया। धीरे धीरे मेरी चेतना लौटने लगी। 

 

मेरे लीवर और गुर्दे की रिपोर्ट बता रही थी कि उन अंगों ने काम करना शुरू कर दिया है मैंने उन डॉक्टरों को भी पहचान लिया जिन्होंने कोमा के दौरान मुझे इंजेक्शन लगाए थे मैंने अपने परिवार को प्रत्येक बातचीत का ब्यौरा ज्यों का त्यों बता दिया जो मेरी बेहोशी के दौरान उनके बीच में हुई थी डॉक्टर और मेरे परिवार के लोग सभी आश्चर्यचकित थे।

 

मेरी भोजन नली और ऑक्सीजन हटा दिए गए। कुछ समय बाद मेरा बोन मैरो बायोप्सी टेस्ट हुआ जो नेगेटिव आया। डॉक्टर को विश्वास नहीं हुआ इसलिए एक सैंपल एक बड़ी लैब में भेजा गया। वहां से भी नेगेटिव आया। इसके बाद मेरा लिंफ नोड बायोप्सी टेस्ट हुआ।

 

 कैंसर का कहीं नामोनिशान नहीं था लेकिन डॉक्टर विश्वास करने को तैयार नहीं थे क्योंकि उनके अनुसार कैंसर इस तरह नहीं खत्म हुआ करता। 5 सप्ताह बाद मुझे अस्पताल से छुट्टी मिल गई।

 

कुछ समय बाद मेरे भाई अनूप ने मुझे एक वेबसाइट लिंक भेजा जिसका नाम था www.nderf.com 

 

यह वेबसाइट डॉक्टर जेफरी लॉन्ग चलाते थे जो स्वयं एक ऑंकोलॉजिस्ट थे। मैंने इस वेबसाइट की कहानियों को बार-बार पढा। अनेक लोगों को मृत्यु के निकट जाने का अनुभव हुआ था वह लगभग मेरे जैसा ही था लेकिन उनमें से कोई कैंसर का मरीज नहीं था और ना ही अनुभव इतने स्पष्ट थे ।

 

इसी वेबसाइट पर एक लिंक था जिसमें कहा गया था यदि आपको भी ऐसा कोई अनुभव है तो यहां क्लिक कीजिए मैंने उसे क्लिक किया तो उस पेज पर बहुत सारे प्रश्न पूछे गए थे जिनके जवाब में ने विस्तार से दिए। कुछ समय बाद डॉक्टर लॉन्ग ने टेलीफोन पर मेरा घंटों लंबा इंटरव्यू लिया और मेरी कहानी को छापने की अनुमति मांगी जो मैंने दे दी और उसके बाद मेरी कहानी वेबसाइट पर छप गई। 

 

इसके बाद मुझे एक और कैंसर विशेषज्ञ ने संपर्क किया जो हांगकांग आकर मेरे केस को बारीकी से जानना चाहते थे। वह हॉन्ग कोंग आए और डॉक्टरों से मेरी रिपोर्ट मांगी कुछ एक रिपोर्ट के उन्होंने फोटोस्टेट अपने पास रखे।

डाक्टर' को' ने हॉन्ग कोंग यूनिवर्सिटी के डॉक्टरों और प्रोफेसरों के साथ मेरी एक कांफ्रेंस आयोजित की तथा इस केस पर एक विस्तृत रिपोर्ट बनाकर दुनिया के कोने कोने में भेजी।

 

अस्पताल  से लौटने के बाद अनीता की जिंदगी बिल्कुल बदल गई थी। चार साल की कष्ट पूर्ण जिंदगी अब करवट ले चुकी थी। भविष्य की चिंता अब उसे नहीं सताती थी। उसे जिंदगी का हर पहलू अब खूबसूरत लगने लगा था यहां तक कि वह अपने कमरे की चीजों को बड़ी बारीकी से देखा जो पहले कभी नहीं देखा था। 

 

उसे बाहरी दुनिया में और साधारण जीवन में कोई रुचि नहीं थी। पशु से लेकर कीड़े मकोड़ों तक प्रत्येक जिंदगी जीवन में उसे एक दिव्यता दिखाई देती थी। यहां तक की अब उससे मच्छर भी नहीं मारे जाते थे क्योंकि उनकी भी तो अपनी एक भरपूर जिंदगी होती थी।

 

 अपराधियों से उसे अब नफरत के बजाय सहानुभूति होती थी। किसी की मृत्यु होने पर उसके लिए दुखी होना मुश्किल हो गया था। बीमारी और बुढ़ापे का डर अब उसके पास भी नहीं आता था। अपने घर के खर्चे कम करने के लिए वे दोनों हांगकांग से दूर चीन की सीमा पर एक सस्ती जगह पर रहने लगे थे। प्रकृति के साथ रहना उसे सुकून देता था। 

 

अनीता कहती है "मैंने लोगों के बारे में धारणा बनाना बंद कर दिया। जीवन को नियंत्रित करने में मेरी रुचि नहीं थी बल्कि मैं स्वयं नियंत्रित होना चाहती थी।" जो कुछ मैंने अनुभव किया वह- छत पर खड़ी होकर चिल्ला चिल्ला कर दुनिया को बता देना चाहती थी। एक दिन अचानक मुझे एक प्रकाशक का ईमेल मिला जिन्होंने मेरी कहानी छापने की इच्छा जाहिर की।

 

जो कुछ मैंने अनुभव किया उसे शब्दों में कहना असंभव है फिर भी मैंने प्रयास किया है जो इस पुस्तक के रूप में आपके सामने है।

ओंकार सिंह शेखावत

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